Wednesday, July 6, 2011

PARCHAI

कल रात किसी के साथ होने की भनक पाई
पीछे मुड़ के देखा तो थी अपनी परछाई
एकांकी में कोई तो है जो साथ चलता है
हारे थके कदम की वेदना समझता है
मन को भी दिलासा दिलाता है
चला चल आगे कोई साथ आता है
पूर्णिमा की रात चाँद पुरे शबाब पे होता है
जैसे शादी की रात को दुल्हन
उकेरता है परछाई बिना सीयाही के कलम
सुना है कभी चाँद हर रोज़ पुर्णिम हुआ करता था
अपनी चांदनी पे बहुत अकड़ता था
इक रोज़ उसे श्री गणेश पे हँसी आई
श्री गणेश ने छीन ली सारी रोशनाई
चाँद ने फिर गुहार लगायी
मिली चांदनी पर साथ में अमावस भी आई
कहते है जीवन साथी भी परछाई सा होता है
दुःख सुख खुशी गम हर वक़्त सम
साथ चलने की कसमे खाता है
परछाई की दुहाई गाता है
पर अमावस की रात किसी ने परछाई को देखा है
वो तो रोशिनी का प्रतिबिम्ब है जो
चमकते सूरज और पूर्णिमा में दीखता है
अमावस बड़ी स्याह होती है मेरे भाई
जीवन साथी तो सजीव है
साथ छोड़ जाती है परछाई